“औरत की मोहब्बत है, सब जगह एक जैसी है। अब भी पूरी दुनिया में औरतों को अपने अस्तित्व को, अपनी शख्सियत को मनवाने में बहुत बड़ा, बहुत कठिन इम्तिहान देने पड़ते हैं।” यह कहना था प्रभा खेतान फाउंडेशन की ओर से आयोजित ‘लफ़्ज़’ आगरा की पहली शृंखला की अतिथि अज़रा नक़वी का। आरंभ में श्वेता बंसल ने आयोजकों और अतिथि वक्ता नक़वी का परिचय दिया। उन्होंने ‘लफ़्ज़’ और शायरा नकवी का परिचय देते हुए यह शेर पढ़ा-
आने वाले कल की ख़ातिर हर हर पल क़ुर्बान किया
हाल को दफ़ना देते हैं हम जीने की तय्यारी में।
आगे का संवाद अहसास वूमेन चांदनी चोपड़ा ने किया।
चोपड़ा ने विविध विधाओं में नकवी की पैठ का जिक्र करते हुए पूछा कि आपकी शुरुआत कैसे हुई? नकवी ने बताया कि मैं ऐसे खानदान में पैदा हुई जहां सब बड़े-बड़े लेखक थे। मेरी मां शायरा थीं। मैं उन्हें ग़ज़ल पढ़ते- लिखते देखती थी। तो खुदा ने मुझे भी कुछ दे दिया और तुकबंदियां करते-करते लिखने लगी। इसमें कुछ खास बात नहीं है। चोपड़ा ने नकवी से उनकी औरतों से जुड़ी कहानियों की किताब का जिक्र किया, तो नकवी ने उसकी लेखन प्रक्रिया से जुड़े अनुभव साझा किए। उन्होंने कहा कि मुझे इतनी हैरत हुई कि औरतों पर जो गुजरती है, उनके हालात पर, उनकी मुसीबतों और समस्याओं पर यहां तक कि दो-दो बीवियों पर उस जमाने में ऐसी कहानियां लिखी गई थीं। चोपड़ा के अनुरोध पर नकवी ने अपनी एक कहानी का सार भी सुनाया, जिसकी नायिका अपने वजूद की तलाश करती रहती है और अंततः अपनी पहचान ढूंढने के लिए आईने के सामने जाती है, और पाती है कि उसकी शक्ल-ओ-सूरत अपनी मां जैसी है।
चोपड़ा के एक सवाल पर नकवी का उत्तर था, “हां, भले ही बहुत चीजें बदल गई हैं, पर औरत की जो असुरक्षा है, उसकी जो सुकून की तलाश है वह वैसी की वैसी है।” औरत की अपनी तलाश और सपने तो हैं ही। नकवी ने चोपड़ा के अनुरोध पर अपनी यह ग़ज़ल पढ़ी-
एक शांत नदी सी लगती हो, किस खामोशी से बहती हो
हर बार उम्मीदें बांधती हो, हर बार नए दुख सहती हो…
नकवी ने बताया कि मैं नज़्में ज्यादा लिखती हूं। टिपिकल ग़ज़लें मैं नहीं लिखती। इश्क, प्यार, मोहब्बत जैसी चीजें मुझसे नहीं लिखी जातीं, मैं उससे बाहर निकल चुकी हूं। एक औरत होने के नाते जो मैंने महसूस किया अपने लिए, जो मैंने महसूस किया बहुतों को देखकर, उसमें हाउस वाइफ भी थीं। ये सब कहीं धीरे-धीरे जलती गई हैं, मुझमें भड़कती गई हैं।
“हां, भले ही बहुत चीजें बदल गई हैं, पर औरत की जो असुरक्षा है, उसकी जो सुकून की तलाश है वह वैसी की वैसी है।”
आपका पसंदीदा शायर कौन है? उत्तर में नकवी ने साहिर लुधियानवी का नाम लिया। कहा कि उन्होंने एक से बढ़ कर एक गाने लिखे-
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया…इसी तरह उनकी ‘चकले’ नज़्म फिल्म में थोड़ा बदल कर आई-
ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के…
ऐसी शायरी कौन कर सकता है। साहिर अपनी मां से बहुत प्यार करते थे। उन्होंने औरत के दुःख-दर्द को बहुत शिद्दत से महसूस किया था। मर्द की हबस को भी देखा था। साहिर में औरतों से जितनी हमदर्दी है, उतनी किसी में नहीं है। उन्होंने साहिर की ‘ओ मेरी जोहरा जबीं…’ को याद करते हुए बहुत विस्तार से बात की और ‘परछाइयाँ’ के कई शेर सुनाए-
जवान रात के सीने पे दूधिया आंचल
मचल रहा है किसी ख़ाब-ए-मर्मरीं की तरह…
नकवी ने साहिर, उनकी शायरी, उर्दू अदब, शायरी के असर, सोशल मीडिया, सऊदी अरब, मुशायरा, साहित्य, किताब, लाइब्रेरी, ऑडियो नॉवेल, अनुवाद भाषा, बोलियां, उर्दू, अरबी, फारसी से जुड़े लफ़्ज़, रेख़्ता, हिंदवी आदि पर भी अपनी बात रखी और कहा कि जो बदलाव आ रहे हैं दुनिया में उन्हें हमें स्वीकार करना चाहिए। उन्होंने श्रोताओं के सवाल के जवाब भी दिए। धन्यवाद ज्ञापन विनती कथूरिया ने दिया।
अहसास वूमेन के सौजन्य से आयोजित लफ़्ज़ आगरा के प्रायोजक हैं श्री सीमेंट। रेख़्ता, हॉस्पिटैलिटी पार्टनर आईटीसी मुगल आगरा, द लक्जरी कलेक्शन और मीडिया पार्टनर दैनिक जागरण का सहयोग मिला।